Big Breaking:-प्राचीन भवन निर्माण शैली से कम हो सकता है आपदा में नुकसान, भूगर्भ वैज्ञानिकों ने सामने रखे तथ्य

प्रदेश में हाल की आपदाओं में नए भवन ढह गए, लेकिन पुरानों को नुकसान नहीं हुआ। भूगर्भ वैज्ञानिकों ने कहा कि पारंपरिक निर्माण तकनीक से प्राचीन मंदिर बने हैं, इसीलिए यह बच गए।

उत्तराखंड में अगस्त और सितंबर में कई जिलों में आई प्राकृतिक आपदा ने भयानक तबाही मचाई। सैकड़ों लोग मारे गए या लापता हो गए, तमाम भवन, पुल आदि ताश के पत्तों की तरह ढह गए। लेकिन हैरानी की बात है कि प्राचीन मंदिर और आवासीय भवनों को कोई नुकसान नहीं हुआ।

भूगर्भ वैज्ञानिक इसकी वजह प्राचीन भवन निर्माण विज्ञान को मानते हैं, जिनके नियमों का पालन करने से आपदा से बचाव हो सका।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण केदारनाथ मंदिर है जो 2013 की बाढ़ में मलबे और पानी की मार झेलने के बाद भी बच गया और उसके आसपास के सभी ढांचे मिट गए क्योंकि मंदिर को मजबूत पत्थरों और कारीगरों की कुशलता से बनाया गया था।

अनादि काल से ही उत्तराखंड की भवन निर्माण शैली बाकी देश से अलग रही है। यहां पर राजस्थानी और कत्यूरी शिल्प ज्यादातर दिखाई देता है।

यहां के भवन भौगोलिक एवं सांस्कृतिक महत्व को देखकर बनाए जाते हैं। जिसमें पत्थर, लकड़ी और मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन आज इन बातों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है जिससे भूस्खलन और भूधंसाव जैसी घटनाएं सामने आ रही है। यह घटनाएं उन स्थानों पर ज्यादातर हुई हैं जिनकी बसागत कुछ वर्षों पहले हुई है।

हाल ही में चमोली के थराली, नंदानगर, उत्तरकाशी के धराली या देहरादून की आपदा ने सरकारों और तमाम संबंधित एजेंसियों को सोचने को मजबूर कर दिया है कि यदि बसागत और निर्माण शैली पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में इस प्रकार की घटनाओं में और तेजी होगी। 

छत के शिखर से लेकर नींव तक ढांचे को मजबूत किया जाता

भूवैज्ञानिक त्रिभुवन सिंह पांगती का कहना है कि प्राचीन भवन इसलिए सुरक्षित रहे क्योंकि वे स्थानीय रूप से उपलब्ध टिकाऊ सामग्रियों से बनाए जाते थे, जो स्थानीय परिस्थितियों और खतरों के अनुरूप होती हैं।

पारंपरिक निर्माण तकनीक भार को प्रभावी ढंग से वितरित करती हैं, जिससे संरचना के किसी एक हिस्से पर अत्यधिक दबाव नहीं पड़ता, जो भूकंप या जल प्रवाह जैसी घटनाओं में मददगार होता है। इसमें छत के शिखर से लेकर नींव तक ढांचे को मजबूत किया जाता था।

कोटी बनाल शैली की चर्चा

यमुनाघाटी में कोटी गांव में बनाए गए कई मंजिला भवनों के नाम पर ही भवन निर्माण शैली को कोटी बनाल शैली कहा गया है। ये भवन 1000 साल पुराने हैं और अभी भी किसी बड़ी आपदा को सहन करने की क्षमता रखते हैं। इस शैली के भवन पत्थर, लकड़ी और मिट्टी के बनाए जाते थे।

कोटी बनाल एक पारंपरिक भूकंपरोधी निर्माण शैली है जो उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सदियों से चली आ रही है, जिसमें लकड़ी और पत्थर का उपयोग करके मजबूत, बहुमंजिला घर बनाए जाते हैं। इस शैली की मुख्य विशेषता इमारतों के अंदर लकड़ी के बीमों की परतें होती हैं, जो भूकंप के दौरान उन्हें एकजुट और लचीला बनाए रखती हैं, जिससे भारी भूकंपों में भी ये घर सुरक्षित रहे हैं।

हार्ड रॉक के बजाय मिट्टी के ढेर पर बनाए गए भवन : डॉ. रावत


इतिहासकार और पर्यावरणविद् डॉ. अजय रावत कहते है कि जहां भी इस प्रकार की घटनाएं हो रही हैं वे सभी भवन हार्ड रॉक के बजाय मिट्टी के ढेर पर बनाए गए हैं। पुराने लोगों के पास संसाधनों की कमी थी लेकिन उनका अनुभव आज भी प्रासंगिक है। स्थान चयन से लेकर निर्माण सामग्री तक की वस्तुओं में विशेष ध्यान दिया जाता था।

मकान बनाने से पहले यह देखा जाता था कि रिफ्ट वैली का विस्तार कहां तक है। फ्लड प्लेन कितना है, वहां पर सख्त चट्टान है या मुलायम। उसके बाद ही भवनों का निर्माण किया जाता था। निर्माण से पहले जमीन को कुछ वर्षे तक खाली छोड़ देते थे जिससे पता चल जाता था कि यहां पर कितना भूस्खलन हो सकता है और नदी का फैलाव कहां तक हो सकता है। इसके बाद ही निर्माण किया जाता था।

कई शहरों की वहन क्षमता हो गई खत्म


भूवैज्ञानिक त्रिभुवन सिंह पांगती ने बताया कि आज कई शहरों और कस्बों की वहन क्षमता खत्म हो चुकी है जिसके बाद नदी-नालों में निर्माण किया जाने लगा है। जोशीमठ हो या नैनीताल इनकी वहन क्षमता खत्म हो चुकी है, इसके बावजूद निर्माण लगातार हो रहे हैं जिससे इस प्रकार की घटनाएं हो रही हैं।

आज जो बसागत हो रही है वह मिट्टी के ऊपर और नदी-नालों पर बनाई जा रही है। सड़क, सुरंग आदि निर्माण कार्यों के चलते पहाड़ियों में ब्लास्ट किए जा रहे हैं जिससे चट्टाने डिस्टर्ब होकर कमजोर हो रही हैं। इसी का नतीजा है कि पहाड़ियां दरक रही हैं।

टपकेश्वर, मसूरी, देवप्रयाग, बदरीनाथ, केदारनाथ या अन्य कई स्थल हैं जो हार्ड रॉक पर बसे हुए हैं। यहां पर पानी या मलबे का बहाव कितना भी तेज क्यों न हो इनको नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। – त्रिभुवन सिंह पांगती, पूर्व अपर निदेशक (एडीजी), भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण

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